Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद

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यह कथन समाप्त करके प्रभु सेवक ने सोफ़िया से कहा-तुमने दोनों वादियों के कथन सुन लिए, तुम इस समय न्यास के आसन पर हो, सत्यासत्य का निर्णय करो।
सोफी-इसका निर्णय तुम आप ही कर सकते हो। तुम्हारी समझ में संगीत बहुत अच्छी चीज है?
प्रभु सेवक-अवश्य।
सोफी-लेकिन, अगर किसी के घर में आग लगी हुई हो, तो उसके निवासियों को गाते-बजाते देखकर तुम उन्हें क्या कहोगे?
प्रभु सेवक-मूर्ख कहूँगा, और क्या।
सोफी-क्यों, गाना तो कोई बुरी चीज नहीं?
प्रभु सेवक-तो यह साफ-साफ क्यों नहीं कहतीं कि तुमने इन्हें डिग्री दे दी? मैं पहले ही समझ रहा था कि तुम इन्हीं की तरफ झुकोगी।
सोफी-अगर यह भय था, तो तुमने मुझे निर्णायक क्यों बनाया था? तुम्हारी कविता उच्च कोटि की है। मैं इसे सर्वांग-सुंदर कहने को तैयार हूँ। लेकिन तुम्हारा कर्तव्‍य है कि अपनी इस अलौकिक शक्ति को स्वदेश-बंधुओं के हित में लगाओ। अवनति की दशा में शृंगार और प्रेम का राग अलापने की जरूरत नहीं होती, इसे तुम भी स्वीकार करोगे। सामान्य कवियों के लिए कोई बंधन नहीं है-उन पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है। लेकिन तुम्हें ईश्वर ने जितनी ही महत्व पूर्ण शक्ति प्रदान की है, उतना ही उत्तरदायित्व भी तुम्हारे ऊपर ज्यादा है।
जब सोफ़िया चली गई, तो विनय ने प्रभु सेवक से कहा-मैं इस निर्णय को पहले ही से जानता था। तुम लज्जित तो न हुए होगे?
प्रभु सेवक-उसने तुम्हारी मुरौवत की है।
विनयसिंह-भाई, तुम बड़े अन्यायी हो। इतने युक्तिपूर्ण निर्णय पर भी उनके सिर इलजाम लगा ही दिया। मैं तो उनकी विचारशीलता का पहले ही से कायल था, आज से भक्त हो गया। इस निर्णय ने मेरे भाग्य का निर्णय कर दिया। प्रभु, मुझे स्वप्न में भी यह आशा न थी कि मैं इतनी आसानी से लालसा का दास हो जाऊँगा। मैं मार्ग से विचलित हो गया, मेरा संयम कपटी मित्र की भाँति परीक्षा के पहले ही अवसर पर मेरा साथ छोड़ गया। मैं भली भाँति जानता हूँ कि मैं आकाश के तारे तोड़ने जा रहा हूँ-वह फल खाने जा रहा हूँ, जो मेरे लिए वर्जित है। खूब जानता हूँ, प्रभु, कि मैं अपने जीवन को नैराश्य की वेदी पर बलिदान कर रहा हूँ। अपनी पूज्य माता के हृदय पर कुठाराघात कर रहा हूँ, अपनी मर्यादा की नौका को कलंक के सागर में डुबा रहा हूँ, अपनी महत्तवाकांक्षाओं को विसर्जित कर रहा हूँ; पर मेरा अंत:करण इसके लिए मेरा तिरस्कार नहीं करता। सोफ़िया मेरी किसी तरह नहीं हो सकती; पर मैं उसका हो गया, और आजीवन उसी का रहूँगा।
प्रभु सेवक-विनय, अगर सोफी को यह बात मालूम हो गई, तो वह यहाँ एक क्षण भी न रहेगी; कहीं वह आत्महत्या न कर ले। ईश्वर के लिए यह अनर्थ न करो।
विनयसिंह-नहीं प्रभु, मैं बहुत जल्द यहाँ से चला जाऊँगा, ओर फिर कभी न आऊँगा। मेरा हृदय जलकर भस्म हो जाए; पर सोफी को आँच भी न लगने पावेगी। मैं दूर देश में बैठा हुआ इस विद्या, विवेक और पवित्रता की देवी की उपासना किया करूँगा। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मेरे प्र्रेम में वासना का लेश भी नहीं है। मेरे जीवन को सार्थक बनाने के लिए यह अनुराग ही काफी है। यह मत समझो कि मैं सेवा-धर्म का त्याग कर रहा हूँ। नहीं, ऐसा न होगा, मैं अब भी सेवा-मार्ग का अनुगामी रहूँगा; अंतर केवल इतना होगा कि निराकार की जगह साकार की, अदृश्य की जगह दृश्यमान की भक्ति करूँगा।
सहसा जाह्नवी ने आकर कहा-विनय, जरा इंदु के पास चले जाओ, कई दिन से उसका समाचार नहीं मिला। मुझे शंका हो रही है, कहीं बीमार तो नहीं हो गई। खत भेजने में विलम्ब तो कभी न करती थी!
विनय तैयार हो गए। कुरता पहना, हाथ में सोटा लिया और चल दिए। प्रभु सेवक सोफी के पास आकर बैठ गए और सोचने लगे-विनयसिंह की बातें इससे कहूँ या न कहूँ। सोफी ने उन्हें चिंतित देखकर पूछा-कुँवर साहब कुछ कहते थे?
प्रभु सेवक-उस विषय में तो कुछ नहीं कहते थे; पर तुम्हारे विषय में ऐसे भाव प्रकट किए, जिनकी सम्भावना मेरी कल्पना में भी न आ सकती थी।
सोफी ने क्षण-भर जमीन की ओर ताकने के बाद कहा-मैं समझती हूँ, पहले ही समझ जाना चाहिए था; पर मैं इससे चिंतित नहीं हूँ। यह भावना मेरे हृदय में उसी दिन अंकुरित हुई, जब यहाँ आने के चौथे दिन बाद मैंने आँखें खोलीं, और उस अर्ध्दचेतना की दशा में एक देव-मूर्ति को सामने खड़े अपनी ओर वात्सल्य-दृष्टि से देखते हुए पाया। वह दृष्टि और वह मूर्ति आज तक मेरे हृदय पर अंकित है और सदैव अंकित रहेगी।
प्रभु सेवक-सोफी, तुम्हें यह कहते हुए लज्जा नहीं आती?
सोफ़िया-नहीं, लज्जा नहीं आती। लज्जा की बात ही नहीं है। वह मुझे अपने प्रेम के योग्य समझते हैं, यह मेरे लिए गौरव की बात है। ऐसे साधु-प्रकृति, ऐसे त्यागमूर्ति, ऐसे सदुत्साही पुरुष की प्रेम-पात्री बनने में कोई लज्जा नहीं। अगर प्रेम-प्रसाद पाकर किसी युवती को गर्व होना चाहिए, तो वह युवती मैं हूँ। यही वरदान था, जिसके लिए मैं इतने दिनों तक शांत भाव से धैर्य धारण किए हुए मन में तप कर रही थी। वह वरदान आज मुझे मिल गया है, तो यह मेरे लिए लज्जा की बात नहीं, आनंद की बात है।
प्रभु सेवक-धर्म-विरोध के होते हुए भी?
सोफ़िया-यह विचार उन लोगों के लिए है, जिनके प्रेम वासनाओें से युक्त होते हैं। प्रेम और वासना में उतना ही अंतर है, जितना कंचन और काँच में। प्रेम की सीमा भक्ति से मिलती है, और उनमें केवल मात्रा का भेद है। भक्ति में सम्मान और प्रेम में सेवाभाव का आधिक्य होता है। प्रेम के लिए धर्म की विभिन्नता कोई बंधन नहीं है। ऐसी बाधाएँ उस मनोभाव के लिए हैं, जिसका अंत विवाह है, उस प्रेम के लिए नहीं, जिसका अंत बलिदान है।
प्रभु सेवक-मैंने तुम्हें जता दिया, यहाँ से चलने के लिए तैयार रहो।
सोफ़िया-मगर घर पर किसी से इसकी चर्चा करने की जरूरत नहीं।
प्रभु सेवक-इससे निश्चिंत रहो।
सोफ़िया-कुछ निश्चय हुआ, यहाँ से उनके जाने का कब इरादा है?
प्रभु सेवक-तैयारियाँ हो रही हैं। रानीजी को यह बात मालूम हुई, तो विनय के लिए कुशल नहीं। मुझे आश्चर्य न होगा, अगर मामा से इसकी शिकायत करें।
सोफ़िया ने गर्व से सिर उठाकर कहा-प्रभु, कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो? प्रेम अभय का मंत्र है। प्रेम का उपासक संसार की समस्त चिंताओं और बाधाओं से मुक्त हो जाता है।
प्रभु सेवक चले गए, तो सोफ़िया ने किताब बंद कर दी और बाग में आकर हरी घास पर लेट गई। उसे आज लहराते हुए फूलों में, मंद-मंद चलनेवाली वायु में, वृक्षों पर चहकनेवाली चिड़ियों के कलरव में, आकाश पर छाई लालिमा में एक विचित्र शोभा, एक अकथनीय सुषमा, एक अलौकिक छटा का अनुभव हो रहा था। वह प्रेम-रत्न पा गई थी।

उस दिन के बाद एक सप्ताह हो गया, पर विनयसिंह ने राजपूताने को प्रस्थान न किया। वह किसी-न-किसी हीले से दिन टालते जाते थे। कोई तैयारी न करनी थी, फिर भी तैयारियाँ पूरी न होती थीं। अब विनय और सोफ़िया, दोनों ही को विदित होने लगा कि प्रेम को, जब वह स्त्री और पुरुष में हो, वासना से निर्लिप्त रखना उतना आसान नहीं, जितना उन्होेंने समझा था। सोफी एक किताब बगल में दबाकर प्रात:काल बाग में जा बैठती। शाम को भी कहीं और सैर करने न जाकर वहीं आ जाती। विनय भी उससे कुछ दूर पर लिखते-पढ़ते, कुत्तो से खेलते या किसी मित्र से बातें करते अवश्य दिखाई देते। दोनों एक दूसरे की ओर दबी आँखों से देख लेते थे; पर संकोचवश कोई बातचीत करने में अग्रसर न होता था। दोनों ही लज्जाशील थे; पर दोनों इस मौन भाषा का आशय समझते थे। पहले इस भाषा का ज्ञान न था। दोनों के मन में एक ही उत्कंठा, एक ही विकलता, एक ही तड़प, एक ही ज्वाला थी। मौन भाषा से उन्हें तस्कीन न होती; पर किसी को वार्तालाप करने का साहस न होता। दोनों अपने-अपने मन में प्रेम-वार्ता की नई-नई उक्तियाँ सोचकर आते और यहाँ आकर भूल जाते। दोनों ही व्रतधारी, दोनों ही आदर्शवादी थे; किंतु एक का धर्मग्रंथों की ओर ताकने को जी न चाहता था, दूसरा समिति को अपने निर्धारित विषय पर व्याख्यान देने का अवसर भी न पाता था। दोनों ही के लिए प्रेम-रत्न प्रेम-मद सिध्द हो रहा था।

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